सेंगोल के बनने से लेकर नए संसद भवन में स्थापित होने तक की जानकारी

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सेंगोल क्या है? इतिहास से वर्तमान बनने की पूरी जानकारी!


सेंगोल
सेंगोल


भारत में नए संसद भवन का उद्घाटन 28 मई, 2023 को प्रातः काल में हुआ। नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ ही गुलामी के प्रतिक पुराने संसद भवन से भारत को छुटकारा मिला और इसका सत प्रतिशत श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) को जाता है। नए संसद भवन (New Parliament Building) का उद्घाटन वैदिक मंत्रोचार एवं उत्तर व दक्षिण भारत की एकीकृत संस्कृति के बीच हुआ।


सेंगोल को प्रणाम करते प्रधानमंत्री मोदी
नए संसद भवन में सेंगोल को स्थापित करने से पहले दंडवत प्रणाम करते हुए पीएम मोदी


नया संसद भवन प्रतिक है भारतीय सभ्यता, धर्म संस्कृति एवं हिंदुत्व का न कि ईसाइयत या इस्लामियत का। भारत हिन्दुओ का देश है और यहाँ ईसाइयत और इस्लामियत का कोई स्थान नहीं है। यहाँ वैसी सोच वाले विधर्मियों का भी कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार इसी वैदिक परम्परा के प्रतिक स्वरुप नए संसद भवन, नई दिल्ली (New Parliament House, New Delhi) में सेंगोल की स्थापना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा पूरी तरह से वैदिक विधि विधान से की गई।


सेंगोल का क्या अर्थ है
आदीनम के संतो से आशीर्वाद के दौरान पीएम मोदी


Sengol Ke Bare Me Jankari (Sengol Kya Hai)


सेंगोल एक तमिल भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है शक्ति, अधिकार एवं सर्वोच्च सत्ता, लेकिन तमिल भाषा का शब्द सेंगोल वास्तव में संस्कृत से आया हुआ एक शब्द है। यह संस्कृत के मूल शब्द 'सूंक' से बना हुआ है। सूंक का अर्थ 'शंख' होता है। शंख वैदिक धर्म (सनातन धर्म) का प्रतिक है और यह किसी उद्घोष हेतु कार्य में विशेष कार्य होता है। इसकी ध्वनि विजय और आह्वान का प्रतिक है। शंख भगवान् विष्णु व माता एवं माँ दुर्गा का भी प्रिय है। इसी को प्रतिक स्वरुप मानकर सेंगोल को तमिल संस्कृति में चोल वंश के समय अपनाया गया था, जो तब के समय चोल वंश में शासक का प्रतिक हुआ करता था। तब के समय यह तमिल संस्कृति में 'राजदंड' के नाम से भी जाना जाता था। यह राजदंड राजपुरोहितो के द्वारा राजा को धर्म के साथ शासन चलाने हेतु प्रदान किया जाता था। वैदिक परम्परा में शासन के मुख्यतः तो प्रकार थे, पहला - शासन के लिए 'राजदंड' और दूसरा धर्म शासन के 'धर्मदंड'। राजदंड राजा के समीप हुआ करता था जबकि धर्मदंड राज्य के राजयपुरोहित के समीप हुआ करता था।


सेंगोल के बारें में जानकारी देते गृहमंत्री अमित शाह
गृह मंत्री अमित शाह सेंगोल के बारें में मीडिया को जानकारी देते हुए (बगल में सेंगोल का चित्र)


सेंगोल के स्वतंत्र भारत के प्रतिक चिन्ह से लेकर अंधकार युग में जाने की पूरी कहानी


यह कहानी सभी हिन्दुओ को हैरान परेशान करने वाली है। कैसे वैदिक धर्म संस्कृति का एक प्रतिक अचानक से विलुप्त हो गया। अगर बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) नहीं होते तो शायद सेंगोल अभी भी कही सड़ गल रहा होता लेकिन वैदिक धर्म में इतनी शक्ति (Power Of Sanatan Dharm) है कि आसुरी शक्ति इसे जितना भी कुचलने की कोशिश करती है, यह भले ही कुछ समय के लिए अंधकार में डूब जाता है पर एक समय के बाद कोई धर्म स्थापना करने वाले दिव्य शक्ति या आत्मा इसे पुनः स्थापित कर देता है, यही बात सेंगोल के साथ भी हुआ।




यहाँ जानिये सेंगोल की पूरी इनसाइड स्टोरी –
(inside Story Of Sengol In Hindi)


यह बात तब की है, जब अंग्रेजो ने भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा कर दी थी। देश के ज्योतिषाचार्य और अंग्रेजो के बीच स्वतंत्रता की तिथि (दिनांक) भी तय हो गई थी। लेकिन इसी बीच अंग्रेजी शासन में भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने तब के प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी करने वाले कांग्रेसी नेता जवाहर लाल नेहरू से पूछा, "मिस्टर नेहरू! शासन के हस्तांतरण के समय क्या आप कोई विशेष धार्मिक प्रतिक को उपयोग में लाएंगे? अगर आपके व आपकी पार्टी की ओर से देश को समर्पित कोई धार्मिक चिन्ह हो तो आप हमें निःसंकोच बताएं, हम वैसा ही करेंगे!”


अब विदेशो में शिक्षा ग्रहण करने वाले, अंग्रेजी शिक्षा दीक्षा में डूबे व धनवान नेहरू को कहाँ किसी हिन्दू धार्मिक परम्परा का ज्ञान था! ज्ञान तो दूर की बात है, नेहरू को तो सनातन धर्म परम्परा में भी कोई लगाव नहीं थी। ये बातें आज कोई कांग्रेसी भी इंकार नहीं कर सकता है कि जवाहर लाल नेहरू पूरी तरह से आधुनिक सभ्यता संस्कृति में डूबे व्यक्ति थे, उन्हें सनातन परम्परा से भी घृणा थी। इसलिए वैसे व्यक्ति से धार्मिक ज्ञान की आशा करना भी बेकार ही था। परिणाम यह हुआ कि वायसराय लार्ड माउंटबेटन के ऐसे प्रश्न से नेहरू चौंक गए और कुछ सोचकर वायसराय से कुछ दिन का समय मांग लिया।


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नेहरू को तो कोई धार्मिक व हिन्दू सांस्कृतिक ज्ञान तो था नहीं इसलिए उन्होंने इस बारें में उस समय के वरिष्ठ नेता सी राजगोपालाचारी से बात की। सी राजगोपालाचारी, जिसको उस समय के लोग राजा जी के नाम से भी जानते थे, उन्हें भी इसका ज्ञान नहीं था लेकिन उन्होंने इसपर अध्ययन करने का निर्णय लिया। बहुत अध्ययन के बाद उन्हें तमिल साहित्य में एक धार्मिक चिन्ह मिल गया। अब चूँकि सी राजगोपालाचारी भी तमिल थे इसलिए उन्होंने अपने अध्ययन में तमिल को अधिक महत्व दिया था।


वह चिन्ह था राजदंड का


तमिल सामाज्य में चोल वंश (Chol Vansh) का बहुत अधिक महत्व था। चोल वंश अपने साम्राज्य विस्तार के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने लंबे समय तक शासन भी किया था। भारत के इतिहास (Inian History) में चोल साम्राज्य का बहुत अधिक महत्व है और वे दक्षिण के अशोक कहें जाते है। लेकिन अशोक और चोल में धरती और आकाश का अंतर था। अशोक केवल एक व्यक्ति तक सीमित हो गए थे, जबकि चोलो का समय बहुत लम्बा चला था, इनमें कई राजा महाराजाओ के आगमन हुए थे। चोल वंश की गिनती विश्व के सबसे अधिक समय तक शासन करने वाले वंशो में होती है। इतना ही नहीं अशोक बौद्धों के संपर्क में आकर बौद्ध धर्म को अपना लिया था और उसने जहाँ जहाँ पर शासन किया वहां पर बौद्ध धर्म का विस्तार किया जैसे अफगानिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है मगर ठीक इसके विपरीत चोल वंश के प्रायः सभी राजा शिव भक्त थे। चोल वंश के शासको ने जहाँ जहाँ पर शासन किया वहां पर मंदिर बनवाने की प्राथमिकता दी थी।


चोल वंश की एक परम्परा का हिस्सा था सेंगोल


एक राजा से दूसरे राजा के हाथ में सत्ता (शासन) का हस्तांतरण के लिए चोल वंश में एक परम्परा रही थी कि राजपुरोहित एक राजदंड देकर उन्हें सत्ता चलाने का आदेश दिया करते थे। इन सारी परम्पराओ की जानकारी सी गोपालाचारी को एक दुर्लभ तमिल पाण्डुलिपि में चित्र के साथ मिल गई। बाद में सी राजगोपालाचारी उस जानकारी के साथ सेंगोल के चित्र को भी लेकर नेहरू के पास गए। नेहरू ने डॉ राजेंद्र प्रसाद व अन्य नेताओ से विचार किया और फिर सभी से विचार करने के बाद नेहरू ने सेंगोल को भारत के स्वतंत्रता प्रतिक के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो गए।




सेंगोल को किसने बनाया था


भारत के स्वतंत्रता का प्रतिक स्वरुप सेंगोल को चुनने के बाद अब प्रश्न उत्पन्न हुआ कि सेंगोल का निर्माण कौन करेगा! इसके लिए सी राजगोपालाचारी ने तंजोर के मठ से संपर्क किया और फिर 1947 में पवित्र थिरुवदुथुराई अधीनम (मठ) के सुझाव पर मद्रास (चेन्नई) के एक जौहरी को सेंगोल बनाने कहा गया। सेंगोल को बनाने वाले जौहरी का नाम वुम्मिदी बंगारू चेट्टी (Vummidi Bangaru Chetty) है। प्रधानमंत्री मोदी ने 28 मई, 2023 को भारत के नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में 96 वर्षीय उस जौहरी वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को भी विशेष रूप से बुलाया था।


सेंगोल जब बनकर आया तब वह लार्ड माउन्टवेटन को सौप दिया गया। इसके बाद लार्ड माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतिक स्वरुप उसे तमिलनाडु से आये प्रधान पुरोहितो को वह सेंगोल सौप दिया। पुरोहितों ने उसे गंगा जल से शुद्धिकरण किया और फिर 14 अगस्त, 1947 जवाहर लाल नेहरू को सौप दिया।


सेंगोल अब तक कहाँ था


जवाहर लाल नेहरू ने सत्ता हस्तांतरण के तौर पर सेंगोल को दिया गया था मगर प्रधानमंत्री बनते ही नेहरू ने उसे अपने पैतृक निवास इलाहबाद (प्रयागराज) का आनंद भवन भिजवा दिया। बाद में नेहरू के प्रधानमंत्री रहते ही 1960 में उसे इलाहाबाद के आनंद भवन से हटाकर प्रयागराज संग्राहलय में भेज दिया गया। इस तरह से देश की सनातन परम्परा को नेहरू ने इस तरह से उपेक्षित एवं तिरस्कृति कर दिया।


सेंगोल की बनावट


सेंगोल की लम्बाई 5 फुट है। सेंगोल पूरी तरह से चांदी के धातु का बना है, जबकि उसपर सोने की परत लगाई गई है। सेंगोल के शीर्ष पर भगवान श्री भोले शिव शंकर की सवारी नंदी की मूर्ति विराजमान है, जो न्याय व धर्म का प्रतिक माना जाता है।


सेंगोल भारत के नए संसद भवन में कहाँ पर स्थापित है


सेंगोल शासन व न्याय का प्रतिक है, इसलिए इसको लोक सभा अध्यक्ष के आसन के ठीक ऊपर शीर्ष पर स्थापित किया गया। इसको स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने स्थापित किया। उनके साथ उस समय लोकसभा अध्यक्ष ओम विरला भी उपस्थिति थे।


प्रधानमंत्री को पहली बार सेंगोल के बारें में जानकारी किसने दी


नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए प्रधानमंत्री सनातन परम्परा और सभ्यता व संस्कृति का ध्यान रख रहे थे। इसी बीच 2021 में उनके पास एक चिट्ठी आयी। वह चिट्ठी भरतनाट्यम की प्रसिद्ध नृत्यांगना पद्मा सुब्रह्मण्यम की थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के पास चिट्ठी लिखकर जानना चाहा था कि स्वतंत्रता का प्रतिक सेंगोल अब तक कहाँ है।


पद्मा सुब्रह्मण्यम कौन है


4 फरवरी, 1943 को जन्म लेने वाली पद्मा सुब्रह्मण्यम भरतनाट्यम (Padma Subrahmanyam) की प्रसिद्ध नृत्यांगना है। उनके पिता प्रसिद्ध फिल्म निर्माता निर्देशक है, जबकि उनकी माता एक सगीतकार थी। पद्मा सुब्रह्मण्यम भरतनाट्यम के क्षेत्र में देश विदेश के कई पुरुस्कारो से सम्मानित स्त्री है। उन्होंने मात्र 14 वर्ष की आयु में ही भरतनाट्यम सीखना आरम्भ कर दिया था।


पद्मा सुब्रह्मण्यम ने इण्डिया टुडे को दिए काक्षात्कार में बताया कि तमिल में सेंगोल का बहुत महत्व है। उन्होंने बताया कि तमिल में छत्र, सेंगोल और सिंहासन मुख्यतः राजा की शक्तियों को दर्शाने वाले माने जाते है। सेंगोल को न्याय और शक्ति का प्रतिक स्वरुप भी माना गया है। उन्होंने बताया कि नेहरू को सेंगोल दिए जाने के बाद से कभी भी सत्ता हस्तांतरण के अवसर पर सेंगोल नहीं दिखा।


पद्मा सुब्रह्मण्यम की चिट्ठी के बाद मोदी सरकार के लिए सेंगोल का पता लगाना चुनौतीपूर्ण कार्य था


सेंगोल का पता लगाना भूसे की ढेर में एक सुई ढूढ़ने जैसा था जबकि समय भी अधिक नहीं था। इसका कारण यह था कि सेंगोल के बारें में भारत सरकार के किसी लिखित दस्तावेज में इसकी कही कोई जिक्र नहीं थी। कही पर भी यह नहीं बताया गया था कि 14 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतंत्रता के प्रतिक स्वरुप सेंगोल को स्वीकार किया था।




सेंगोल की खोज शुरू हुई


अधिकारियों की टीम अपने स्तर से सेंगोल की तलाश करना शुरू कर दी। अब तक की जानकारी से यह तो ज्ञात था कि सेंगोल तमिलनाडु से संबद्ध था, इसलिए जाँच की सारी केंद्र बिंदु तमिलनाडु पर केंद्रित हो गई। स्वतंत्रता के बाद छपे तमिल अखबारों के विभिन्न आर्टिकल का पता लगाया गया। उसमें सेंगोल का चित्र एवं उसके बारें में चर्चा मिल गई। इस पुष्टि के अलावे भी उस के कई देशी विदेशी अखबारों के आर्टिकल को भी खंगाले गए। उनमें भी इसकी चर्चा की गई थी। बाद में शंकराचार्य के जीवनी का भी अध्ययन किया गया, जो 1975 में छपी थी। उसमें भी इसकी चर्चा थी। सभी तथ्यों के आधार पर यह तय हो गया कि सेंगोल वास्तव में स्वतंत्रता का प्रतिक स्वरुप था।


लेकिन बहुत समय गुजर जाने के बाद भी इस जाँच में अधिक प्रगति नहीं हुई। तभी इसी बीच चमत्कार हुआ। प्रयागराज के संग्रहालय से एक कर्मचारी ने जाँच टीम को यह सूचना दी कि वहां एक लम्बी छड़ी जैसी कोई वस्तु संग्रहालय के एक कोने में वर्षो से पड़ी हुई है। टीम तत्काल वहां गई तो उन्हें वह दुर्लभ सेंगोल वहां उपेक्षति व क्षतिग्रस्त स्थिति में मिल गया। बताया जाता है संसद भवन के उद्घाटन से ठीक 3 महीने पहले ही प्रयागराज के संग्रहालय में सेंगोल के होने का पता चला था।


उस समय की पत्रिका में छपे सेंगोल का वर्णन
उस समय की पत्रिका में छपे सेंगोल का वर्णन, स्त्रोत - सोशल मीडिया


सेंगोल का पता चलने के बाद इसकी पूरी तरह से जाँच पड़ताल की गई


जब प्रयागराज के संग्रहालय में सेंगोल का पता चल गया तब इसकी सत्यता की पूरी तरह से आधिकारिक रूप से जांच पड़ताल की गई। यह पता लगाया गया कि क्या वास्तव में यही वह वस्तु अर्थात सेंगोल है जिसको इतने समय से ढूंढा जा रहा था अथवा यह कुछ और है। इसके लिए उस क्षतिग्रस्त व उपेक्षित सेंगोल की प्रमाणतिकता की आवश्यकता थी। अब फिर से एक नई तलाश शुरू हुई। इस बार यह तलाश हुई कि 1947 में जिससे बनाया गया था वह कहाँ है। यह संयोग था कि इस तलाश में अधिक समय नहीं लगा और जल्द ही उनका पता चल गया, जिसने सेंगोल बनाया था। एक और अच्छी बात यह थी कि जिन्होंने सेंगोल बनाया था, वह अब तक जीवित थे। उनके पास उस क्षतिग्रस्त सेंगोल को ले जाया गया, जब उनके पास सेंगोल को ले जाया गया तो वे देखते ही उसे पहचान गए। 96 वर्षीय वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने इसकी पुष्टि भी कर दी कि 1947 में थिरुवदुथुराई अधीनम (मठ) के द्वारा उन्हें इसे बनाने का काम दिया गया था।


75 वर्ष पुराने एवं क्षतिग्रस्त सेंगोल की मरम्मत कराई गई


क्षतिग्रस्त सेंगोल को उसी जौहरी से मरम्मत कराई गई जिसने इसे उस समय बनाया था। इस तरह देश के नए संसद भवन में स्थापित होने के लिए सेंगोल अब तैयार था। इसके बाद 28 मई, 2023 को प्रधानमंत्री मोदी ने नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर उस सेंगोल को लोक सभा अध्यक्ष के आसन के पीछे ऊपर की ओर स्थापित कर दिया।


सेंगोल को मिला सम्मान
तमिलनाडु के संतो से आशीर्वाद के दौरान पीएम मोदी


सरकारें आती रही, सरकारें जाती रही, पार्टियां अपनी वोट बैंक की पॉलिसी करती रही मगर सेंगोल प्रयागराज के किसी कोने में उपेक्षित ही ऐसे 75 वर्षो से पड़ा धूल फांकता रहा।



लेखन :

राजीव सिन्हा

(राजीव सिन्हा दिल्ली के जाने माने लेखक है)

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